Tuesday, December 25, 2007

यहां अब दलितों की सरकार है

दलित...यह एक ऐसा शब्द है, जो सदियों से नफरत और हिकारत का पर्याय रहा है. हजारों सालों से वह सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से शोषित होता आ रहा है. वह अपने वोट की ताकत से लोगों को सत्ता में पहुंचाता रहा, लेकिन खुद सत्ता से बहुत दूर, सामाज के अंतिम पायदान पर खड़ा रहा. भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार दलितों के राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल हुआ है. यहां अब दलितों की सरकार है. बसपा सरकार के शासन में दलित खुद को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं, क्या उनके जीवन में कोई बदलाव आ रहा है...इसी का जायजा लेने द संडे इंडियन के प्रमुख संवाददाता अनिल पांडेय और फोटोग्राफर मुकुंद डे निकल पड़े पूर्वी उत्तर प्रदेश के देशाटन पर....


मैले-कुचैले कपड़ों में लिपटी उस पच्चीस साल की दलित विधवा सुनीता की सूरत बार-बार आखों के सामने आ जाती..वह दो बच्चों की मां थी. ऐसे बच्चे, जिनके सिर से बाप का साया उठ चुका है. दिसंबर की गुलाबी ठंड में बिना गर्म कपड़ों के वे बच्चे... "जब बाप ना बाय, तो गरम कपड़ा के दिआई???" एक मां की दुख भरी आवाज बार बार कानों में कचोट रही थी. वोट किसे देते हो? "हाथी पे..." क्यों देते हो? "इ हमार पार्टी है." मायावती को जानते हो...? "हां, स्कूल में मास्टरनी हैं.. " कांशीराम को जानते हो? "इ के है?... रहुला के चाचा हैं." सरकार से क्या चाहते हो?.. "अंतोदय कार्ड.."

सुनीता दो बार से बसपा को वोट दे रही है, अब उसकी सरकार है. क्या उसकी एक छोटी-सी ख्वाहिश भी पूरी नहीं हो सकती? उसके सपने केवल अंत्योदय कार्ड तक सिमट के रह जाते हैं. सुनीता कहती हैं, "बीडीओ साहब से कह कर हमारा कार्ड बनवा दीजिए. कम से कम दो जून की रोटी तो मिल जाएगी. नहीं तो मर जाएंगे." पति के इलाज के लिए सुनीता ने खेत गिरवी रख दिया था. फिलहाल, वह दूसरे के खेतों से बथुआ लाकर बच्चों का पेट पाल रही है. मेरे जेहन में बार-बार यह सवाल घूम रहा था. सुनीता बथुआ का साग खिला कर कब तक अपने बच्चों को जिंदा रख पाएगी? क्या बसपा सरकार में उसके हालात बदलेंगे? यह सोच ही रहा था कि ड्राइवर की तीखी आवाज से मेरा ध्यान भंग होता है. "साहब, अंबेडकर गांव का बोर्ड लगा है, गाड़ी मोड़ दूं?" मेरे सामने राज्य की राजधानी लखनऊ से महज 30 किलोमीटर दूर शिवपुरी गांव की सुनीता की बातें फ्लैशबैक की तरह घूम रही थी. हम अंबेडकर बस्ती की तरफ मुड़ जाते हैं. मैं मायावती सरकार के छह महीने बीतने के बाद लोकतंत्र के उस उत्सव की खुशी की तपिश महसूस करने निकला था जिसे दलितों ने अपने वोट से साकार किया था. पहली बार पूर्ण बहुमत से उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी है. दलितों की सरकार... समाज के हाशिए पर खड़े सबसे गरीब आदमी की सरकार. जिसने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी उसकी सरकार बनेगी. लेकिन इस यात्रा से महसूस हुआ बसपा सरकार बनने से दलित खुश तो हैं लेकिन फिलहाल उनके जीवन में बहुत कुछ बदला नहीं है. न ही उन्हें कोई उम्मीद है कि उनके जीवन में कोई बदलाव होगा. सुनीता जैसे लाखों लोग एक अदद बीपीएल और अंत्योदय कार्ड के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिस पर उनका हक है. लेकिन गरीबों का हक मार कर गांव के दबंग लोगों ने बीपीएल और अंतोदय कार्ड बनवा लिया है. इस कार्ड के जरिए गरीब दलितों को हर महीने बहुत ही सस्ते में 35 किलो राशन मिल जाता है.

टेढ़े-मेढ़े रास्ते से होते हुए हम अंबेडकर नगर के सीमई कारीरात गांव की अंबेडकर बस्ती में पहुंचते हैं. बस्ती तक पक्की सड़क है. अंबेडकर नगर संसदीय क्षेत्र से मायावती चुनाव लड़ती है. मायावती के राज्यसभा में जाने बाद फिलहाल इस संसदीय सीट पर सपा का कब्जा है, लेकिन इलाके के पांचों विधायक बसपा के हैं. सीमई कारीरात की दलित बस्ती की सूरत बिलकुल अलग है. यहां समृद्धि दिखाई देती है. बस्ती के ज्यादातर मकान पक्के हैं. लड़के और लड़कियां कालेज में पढ़ते हैं. कई लोग सरकारी नौकरी में हैं. जब इस बस्ती की तरफ देखता हूं तो दूर क्षितिज में फिर से सुनीता का असहाय चेहरा दिखाई देने लगता है.

इस दलित बस्ती में पहली बार मई में डीजे आया था. अंबेडकर की आदमकद मूर्ति के सामने उस दिन रात भर नाच गाना हुआ. पूड़ी और खीर बांटी गई. युवाओं के साथ-साथ बुजर्गों ने भी ठुमके लगाए. यह कोई शादी का अवसर नहीं था. यह सदियों से सताए गए दलितों के सत्ता प्राप्ति का उत्सव था. प्रजा से राजा बनने की खुशी का अवसर था. पूरी बस्ती में वह खुशी आज भी दिखाई देती है. गांव के नौजवान अनिल गर्व से कहते हैं, "गांव के सवर्णों की अब पहले जैसी हिम्मत नहीं रही. कालेज में अभी हाल में झगड़ा हुआ तो हमने सवर्ण लड़कों को खूब पीटा और सीना चौड़ा करके घर आए. वे हमारा कुछ बिगाड़ नहीं पाए." बगल में खड़े रिटायर शिक्षक और बस्ती के युवाओं को वैचारिक खुराक देने वाले बुधिराम कहते हैं, "बसपा की सरकार नहीं होती तो वे हमें दबा लेते. मायावती के मुख्यमंत्री बनने से अब हम सिर उंचा करके चल सकते हैं." सीमई कारीरात वही ऐतिहासिक गांव है जहां एक पल्ले वाले दरवाजे लगाए जाते हैं. लेकिन दलितों ने विद्रोह किया और यहां ब्राह्मणों के इस फऱमान की परवाह किए बिना कि "इससे शिव भगवान नाराज हो जाएंगे" अपने घरों में दो पल्ले वाले दरवाजे लगा रहे हैं. सीमई कारीरात के लोग खुश हैं. उन्हें लगता है कि बसपा शासन में य़ुवाओं को रोजगार मिलेगा और उन्हें सम्मान. लेकिन मुझे पूर्वी उत्तर प्रदेश की अपनी एक सप्ताह की यात्रा के दौरान सीमई कारीरात जैसी दूसरी दलित बस्ती नहीं मिली. लेकिन हां, हर दलित बस्ती में सुनीता जैसी महिलाओं से जरूर रूबरू होना पड़ता था.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में बिजली की जबरदस्त किल्लत है. अंधेरे को चीरते हुए हम शशि के घर पहुंचते हैं. घर के बाहर पुलिस का पहरा है. फैजाबाद के मिल्कीपुर में मोमबत्ती की रोशनी में हमारी मुलाकात शशि के पिता योगेंद्र कुमार से होती है. मोमबत्ती की लौ की तरह ही योगेंद्र की आंखे भी हिलती रहती हैं. कभी वे अंधेरे को देखते हैं तो कभी रोशनी को. लंबी चुप्पी के बाद वह अपनी बेटी शशि की हत्या का आरोप बसपा के पूर्व मंत्री आनन्द सेन यादव पर लगाते हैं. योगेंद्र बामसेफ के पुराने कार्यकर्ता हैं और कांशीराम के सपने को साकार करने और बसपा की सरकार बनवाने के लिए उन्होंने अपना बहुत कुछ स्वाहा किया है. वह कहते हैं, "बसपा के शासन में मेरी बेटी के हत्यारे खूलेआम घूम रहे हैं. जो मंत्री और विधायक मेरे घर पर आ कर कभी डेरा डाले रहते थे, वे अब मुझसे मुंह चुराने लगे है. जिस बसपा के लिए मैने कभी घर परिवार की चिंता नहीं, उसके शासन में मैं असहाय और लाचार महसूस कर रहा हूं. बात सुनने की बात तो दूर मायावती ने तो मुझसे मिलने से ही इनकार कर दिया." योगेंद्र कोई अकेले दलित नहीं हैं, जिन्होंने बसपा के लिए दिन-रात एक कर दिया और जब सरकार की मदद की जरूरत पड़ी तो उन्हें उपेक्षा ही मिली. दलितों का उत्पीड़न जारी है. तब भी पुलिस दबंगों का साथ देती थी और आज भी. बसपा शासन में भी दलित अपनी सामाजिक सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं. लखनऊ के महिपत मऊं गांव के दलितों के घर में स्थानीय दंबग मुसलमानों ने घुस कर जम कर उत्पाद मचाया, महिलाओं और लड़िकयों से बलात्कार की कोशिश की. पीड़ित चंद्रिका प्रसाद कहते हैं, "अपराधियों पर पुलिस इसलिए कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, क्योंकि एक बसपा विधायक का उन्हें संरक्षण प्राप्त है." संकट की इस घड़ी में बसपा नेताओं ने भी इनसे किनारा कर लिया है.

प्रतापगढ़ जिले के पट्टी तहसील के भदेवरा गांव के दलित युवक चक्रसेन की गांव के दबंग ब्राह्मणों ने इसलिए हत्या कर दी थी कि उसका बीटेक में दाखिला हो गया था. चक्रसेन के परिवार के लोग स्थानीय बसपा विधायक पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप लगाते हैं. जब चुनाव का बिगुल बजा तो भदेवरा के दलितों ने हर बार की तरह इस बार भी खुल कर बसपा का साथ दिया. जब मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. उन्हें लगा कि अब पंडित जी और बाबू साहब लोग उन्हें तंग नहीं करेगे. लेकिन कुछ दिन बाद ही उनका सपना काफूर हो गया. चक्रसेन के दादा शिव मूरत सहित बस्ती के लोग एक स्वर में कहते हैं, "यह दिन देखने के लिए थोड़ी हमने बसपा को वोट दिया था. अब हम लोग बसपा को वोट नहीं देंगे."

चक्रसेन का घर गांव के आखिरी छोर पर था. वैसे दलित बस्ती गांव के आखिरी छोर पर ही होती है. सवर्णों के घरों से काफी दूर. जब मैं चक्रसेन के घर पहुंचता हूं तो एक आदमी हमसे पूछताछ करने लगता है. पता चला वह हेड कांस्टेबल बुधराम सरोज हैं. चक्रसेन का परिवार पुलिस के सुरक्षा घेरे में है. मैं जब अपनी नोट बुक में पुलिसवालों का नाम नोट कर रहा था तो बुधराम धीरे से कहते हैं, "मेरे नाम के आगे एससी लिख लीजिए." पांच पुलिस वाले घर की रखवाली कर रहे हैं, एक कमरे के उस घर की, जिसमें कुछ है ही नहीं. बुधराम सरोज कहते हैं, "इनकी बहुत ही बुरी स्थिति है. घर में खाने तक को अनाज नहीं है." पांच पुलिसवालों में से तीन सवर्ण हैं, दो पंडित जी और एक ठाकुर साहब. जिस मड़ई में भैंस बांधी जाती थी, उसी में पांचो पुलिसवाले रह रहे हैं. खाना वे दलित बस्ती में ही एक साथ बनाते और खाते हैं. सवर्ण पुलिसवालों को एक गरीब दलित की सुरक्षा में लगना अखर रहा है. उनके चेहरे से यह साफ झलक रहा था. बुधराम सरोज कहते हैं, "अपने अब तक के कैरियर मैं मैने शिवमूरत जैसे गरीब आदमी को कभी पुलिस सुरक्षा मिलते नहीं देखा." शिवमूरत खुद मानते हैं, "अगर बसपा की सरकार न होती तो उन्हें पुलिस सुरक्षा नहीं मिलती." लेकिन वे आगे कहते हैं, "हमें पुलिस वालों की नहीं, न्याय की जरूरत है." बस्ती के लोग कभी जिन पुलिसवालों को देख कर छुप जाते थे, चक्रसेन के परिवार की सुरक्षा में उनकी तैनाती को वे एक अजूबा ही मानते हैं.

रायबरेली कभी इंदिरा गांधी और अब सोनिया गांधी की वजह से जाना जाता है. घूमते-घूमते हम यहां के छतईंयां गांव की दलित बस्ती में पहुंचते हैं. अस्सी साल की अनपढ़ बुजर्ग महिला बिठाना इंदिरा गांधी के मुकाबले किसी को नेता नहीं मानती. सोनिया गांधी को वोट देने वाली बिटाना मायावती को चिल्ला चिल्ला कर खरी-खोटी सुनाती हैं और हवा में यह सवाल उछाल देती हैं, "मायावती अपना पेट भरेंगी कि हमारा?" शिवकुमार कहते हैं, "मेरे घर में पांच वोट हैं. वैसे तो हम सोनिया गांधी को चाहते हैं, लेकिन हर बार कम से कम दो वोट बसपा को जरूर देते हैं." ऐसा ही कुछ रवैया लखनऊ के शिवपुर गांव के दलितों का है. वे मुलायम के प्रशंसक हैं, लेकिन वोट बसपा को देते हैं. बाबूलाल पासी कहते हैं, "मुलायम सिंह की सरकार अच्छा काम करती है. लेकिन वोट मैं बसपा को ही देता हूं." यही बसपा की सफलता का राज है. दलित अपने को बसपा से अलग नहीं कर पाता. वह अगर किसी दूसरी पार्टी को वोट दे भी दे, तो लोग यकीन नहीं करते. उसे बसपा का ही माना जाता है.

यह लखनऊ जिले के निगोहा गांव की अंबेडकर बस्ती है. हाल ही में इसे अंबेडकर बस्ती का दर्जा मिला है. मायावती सरकार का विकास कार्य यहां दिखाई देता है. 132 दलितों को घर बनाने के लिए पैसा मिल गया है. लेकिन भूमिहीन दलितों को पट्टा देने के लिए जमीन ही नहीं है. मायावती के सोशल इंजीनियरिंग की कामयाबी यहां दिखाई देती है. मैं दलित पंच गंगा सहाय के साथ गांव के प्रधान से मिलने जाता हूं. उनके घर के सोफे पर हम तीनों साथ बैठ कर बाते करते हैं और चाय पीते हैं. इस बारे में पूछने पर बसपा समर्थक गांव के प्रधान सुरेंद्र कुमार दीक्षित कहते हैं, "अब हम इनसे (दलित) बराबरी का व्यवहार करते हैं. मैं सर्दियों में अक्सर दलित बस्ती में जाकर वहां लोगों के साथ जमीन पर बैठ कर अलाव तापता हूं." उत्तर प्रदेश में कहीं कहीं यह बदलाव दिखता, लेकिन यह अभी सूक्ष्म स्तर पर ही दिखाई देता है. अगर बसपा यह बदलाव लाने में कामयाब हो जाती है तो दलितों को वह सम्मान मिल जाएगा, जिसके लिए वे सदियों से संघर्ष करते आ रहे हैं. लेकिन आम दलित के लिए तो अभी यह सपने जैसा ही है.
प्रतापगढ़ के गोपालपुर गांव के शिवबरन सरोज कहते भी हैं, "बड़े लोग (सवर्ण) कभी नहीं चाहेंगे की हम उनकी बराबरी करें."
अनिल पांडेय

जादुई आभा अब बिखरने लगी है...

बनारस की पहचान एक आध्यात्मिक और चमात्कारिक नगरी के रूप में है. भौतिकता और चमक-दमक से दूर रहने वाला यह शहर अपनी मस्ती और बेफिक्री के लिए भी जाना जाता है. अनिल पांडेय बता रहे हैं कि मिथकीय संदर्भों वाले इस शहर की जादुई आभा अब बिखरने लगी है....

बनारस के दुर्गाकुंड स्थित चाय की दुकान पर हर रोज लोगों को ठहाके लगाते देखना राबर्ट को अजीब लगता था. उसकी उलझन और बढ़ गई, जब उसने देखा कि यह सिलसिला तो दिनभर जारी रहता है. पहले उसे लगा कि ये लोग किसी "लाफिंग क्लब" के सदस्य हैं. लेकिन उसकी हैरानी तब और बढ़ जाती है जब उसे पता चलता है कि ये लोग किसी "लाफिंग क्लब" के सदस्य नहीं, बल्कि बनारस के "सामान्य" लोग हैं. कोई वकील है तो कोई शिक्षक... कोई रिस्शा चलाता हैं को कोई फल बेचता है. आखिर एक दिन उसका धैर्य जवाब दे गया और उसने हिम्मत करके लोगों से उनकी हंसी का राज पूछ ही लिया. जवाब सुन कर अंग्रेज हैरत में पड़ गया. जिसे वह अबतक मिथक मानता था, वह एक हकीकत के रूप में उसके सामने था.
जवाब बड़ा ही सीधा था, लेकिन राबर्ट के लिए किसी पहेली से कम नहीं. लोगों ने राबर्ट को बताया कि वे लोग "वर्तमान" में जीते हैं, इसलिए उन्हें "भविष्य" की चिंता नहीं होती. यही उनकी खुशी और मस्ती का राज है. काशी के लोगों के लिए यह एक सामान्य सी बात है. भविष्य के प्रति चिंतित न होने से वह कुछ खोने और पाने के भय से मुक्त होता है. वह वर्तमान में जीता है और अतीत की जुगाली करता है. राबर्ट ने सुना था कि काशी के लोग मुफलिसी में भी बेफिक्री का जीवन जीते हैं. लेकिन वह इस पर कतई यकीन करने को तैयार नहीं था कि गरीबी और अभाव में भी भला कोई कैसे खुश रह सकता है? उसे यह सब कपोल कल्पना लगती थी, लेकिन बनारस आने के बाद उसका यह भ्रम दूर हो जाता है. उसे लोगों की मस्ती का, खुशी का राज पता चल गया था. उसे यह सब किसी जादू से कम नहीं लग रहा था.

बनारस की पहचान तो वैसे एक प्रचीन और आध्यात्मिक शहर की है, लेकिन यहां आने वाला हर कोई इसे अपने-अपने हिसाब से परिभाषित करता है. यही वजह है कि इस शहर के साथ तमाम तरह के मिथक जुड़े हुए हैं. कोई इसे दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं के "म्यूजिमय" के रूप में देखता है तो कोई "मोक्ष की नगरी" के रूप में. कुछ लोग इसे "सुकुन का शहर" मानते है तो कुछ "भगवान शंकर का घर". बहुत सारे लोग इसे "मस्ती" और "बेफिक्री" के दुर्लभ शहर के रूप में भी देखते हैं. लेकिन ज्यादातर लोग इसे एक चमत्कारिक नगरी ही मानते हैं, जहां "कुछ" न होते हुए भी "बहुत कुछ" है. एक अलौकिक शांति.. अविस्मर्णीय दिव्य अनुभूति... मन को सुकुन देने वाले गंगा के प्राचीन घाट, मंदिर की घंटियां.. काशी विश्वनाथ का मंदिर, मोक्षदायिनी गंगा.. और गंदी तंग गलियों व भीड़भाड वाले इस शहर में एक अजीब सी खामोशी.. ऐसी खामोशी जो लोगों को घंटो ध्यान के बाद हासिल होती है. बनारस को जीने वाले विद्वान और हरिशचंद्र महाविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. गया सिंह कहते हैं, "ये सब बाते मिल कर बनारस को एक जादुई व्यक्तित्व प्रदान करते हैं. बनारस से कई तरह के मिथक भी जुड़े हुए हैं और यह शहर अपने मिथकीय संदर्भों पर पूरी तरह से खरा भी उतरता है." वे आगे कहते हैं, "बनारस एक ऐसा विरला शहर है जिसकी गलियों में भारत बसा है. यहां कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के लोग रहते हैं."

बनारस के कई रंग हैं और कई रुप भी. पुराणों, वेदों और लोक कथाओं में बनारस के इन रूपों और रंगों का दर्शन होता है. एक मान्यता यह है कि बनारस भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिका हुआ है. इसीलिए यह दिव्य-आध्यात्मिक शहर है. "सुबहे बनारस" के रहस्य को भी लोग महादेव से जोड़ कर देखते हैं. बनारस के लोगों का कहना है कि सुबह सूर्य की किरणें बाबा विश्वनाथ के मंदिर से टकरा कर लोगों तक पहुंचती हैं, इसीलिए यहां के लोग ऊर्जावान व मस्त रहते हैं. पुराणों के मुताबिक काशी (बनारस का प्रचीन नाम) भगवान शंकर का निवास स्थान है. संस्कृति के विद्वान और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के प्रोफेसर आरसी पंड़ा कहते हैं, "काशी के बारे में यह वैदिक मान्यता है कि यहां के कण-कण में भगवान शिव का वास है. और जो लोग काशी में प्राण त्यागते हैं उन्हें शंकर और पार्वती खुद स्वर्ग से लेने आते हैं." काशी में मरने से मोक्ष प्राप्ति होती है, इसी धारणा की वजह से ही मणिकणिका घाट (गंगा किनारे स्थित श्मशान घाट) पर कभी चिता की राख ठंडी नहीं होती. काशी तुलसी, कबीर और रैदास जैसे महान संतों की जन्मभूमि भी रही है. तो अघोर कीनाराम और तैलंगास्वामी को यहां लोग महादेव का अवतार मानते हैं. इनके बारे में जितने मुंह उतनी बाते सुनने को मिलती हैं. लेकिन काशी में कोई विरला ही होगा जो इन्हें इतिहास का मिथकीय पात्र बताएगा. लोग इनके चमत्कारों से प्रभावित मिलते हैं. कीनाराम और तैलंगास्वामी के चमत्कारों की किवदंतियां बनारस की गलियों में बिखरी पड़ी हैं. कीनाराम और तैलंगास्वामी का नाम लोग बड़ी ही श्रद्दा से लेते हैं. उनकी समाधि स्थल पर देश के कोने-कोने से लोग दर्शन करने आते हैं.
बनारस अपनी जिंदादिली और मस्ती के लिए ज्यादा जाना जाता है. यही वह वजह है जिसकी वजह से दुनिया भर के लोग यहां आते हैं. जो लोग बनारस के बारे में नहीं जानते, वे इसे एक मिथक ही मानते हैं. बनारस के बारे में कहा जाता है कि जो यहां कुछ दिन रह गया उसका मन फिर दुनिया में कहीं नहीं लगता. मशहूर शहनाई वादक स्वर्गीय बिसमिल्ला खान से लेकर आईआईटी बनारस में प्रोफेसर रह चुके जानेमाने प्रर्यावरणविद डा वीरभद्र मिश्र को विदेशों में बेहतर सुख-सुविधाओं के साथ बसने के तमाम मौके मिले, लेकिन उन्होंने यह कर कभी बनारस नहीं छोड़ा कि उन्हें वहां "गंगा" कहां मिलेगी. अब प्रो. आर सी पंडा को ही ले लीजिए. उड़ियाभाषी पांडा 1988 में पुरी से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में लेक्चरर से रीडर बन कर इस उम्मीद से आए थे कि जल्दी ही वे अपने राज्य लौट जाएंगे. प्रो. पांडा कहते हैं, "लेकिन बनारस इतना भा गया कि अब इसे छोड़ने का दिल नहीं कहता. मुझे जेएनयू जैसे कई और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में नौकरी का मौका मिला, लेकिन मैने मना कर दिया, जबकि कैरियर के लिहाज से यह बेहतर विकल्प था."
प्रो. जे.एल शर्मा दिल्ली में रहते हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों को रसायन विज्ञान पढ़ाते हैं. आध्यात्म और विज्ञान में हमेशा टकराव रहा है, लेकिन बनारस में यह टकराव दिखाई नहीं देता. गंगा के घाटों की अलौकिक शांति और बनारस की मस्ती प्रो. शर्मा को हर साल काशी जाने के लिए मजबूर कर देती है. 25 साल से यह सिलसिला जारी है. वे इसे एक जादू की नगरी मानते हैं. वे कहते हैं, "इस शहर की आबो-हवा में कुछ जादू तो है जो आप को यहां आने और रुकने के लिए मजबूर कर देता है." वे कहते हैं, "बनारस को सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. और मेरे लिए उन अनुभवों का शब्दों के जरिए व्याख्या करना मुश्किल है." प्रो. शर्मा बनारस की चाय की दुकानों से बहुत प्रभावित हैं. वे इसे शहर की नब्ज बताते हुए कहते हैं, "बनारस की चाय दुकानें महज दुकान नहीं हैं. वे सूचना केंद्र हैं और चलता फिरता पुस्तकालय भी. यहां मस्ती भी मिलती और दुनिया भर का ज्ञान भी. लोग यहां आप को चाय की चुस्कियां लेते हुए दिल्ली की राजनीति से लेकर ह्वाइट हाउस तक की बाते करते मिल जाएंगे." तो डाकूमेंट्री फिल्में बनाने वाले यतीश यादव के लिए बनारस स्वयं के साक्षात्कर के लिए एक बेहतरीन जगह है. फुर्सत मिलते ही वे बनारस भाग आते हैं और घंटों मणिकणिका घाट और हरिशचंद घाट पर बैठ कर जलती चिताओं को निहारते रहते हैं. यतीश कहते हैं, "इससे एहसास होता है कि यही जीवन का अंतिम सत्य है. यह एहसास ही जीवन में कुछ नेक कार्य करने के लिए प्रेरित करता है." बनारस अपनी गंगा जमुनी तहजीब के लिए भी जाना जाता है. गांगा का आनन्द यहां के हिंदू ही नहीं मुसलमान भी उठाते हैं. गंगा के घाटों पर विचरण करते तमाम मुसलमान मिल जाएंगे. मशहूर शायर नजीर बनारसी को गंगा के घाट बहुत प्रिय थे. वे कहा करते थे कि ईश्वर उन्हें कभी बनारस से दूर न करे. तो बिसमिल्ला खान भगवान शिव के अराधक थे और विश्वनाथ मंदिर भगवान शंकर के दर्शन करने जाया करते थे. यह दुर्लभ उदाहरण केवल बनारस में ही मिल सकता है.

बनारस के बारे में कहा जाता है वह हमेशा भौतिकता से दूर रहता है, कभी पैसे के पीछे नहीं भागता. दुनिया की चमक दमक और भीड-भाड़ जहां खत्म होती है बनारस वहां से शुरु होता है. यही वजह है कि भौतिकता से ऊबे दुनियाभर के तमाम लोग शांति की तलाश में यहां आते हैं. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. यहां की नई पीढ़ी भौतिकता और पश्चिमी चमक-दमक की ओर तेजी से आकर्षित हो रही है. प्रसिद्द साहित्यकार और बनारस के जनजीवन पर आधारित चर्चित उपन्यास 'काशी का आस्सी' के लेखक काशीनाथ सिंह कहते हैं, "नई पीढ़ी बनारसीपन से दूर हो रही है. वह यहां की मस्ती और इत्मीनान को निकम्मापन और आलस्य समझने लगी है. अपनी मस्त चाल से चलने वाला यह शहर अब पैसे और भौतिकता की होड़ में शामिल हो गया है." धीरे-धीरे बनारस बदलने लगा है. लोगों के जीवन से मस्ती और बेफिक्री गायब हो रही है. काशीनाथ सिंह की माने तो बाजारवाद की आंधी से बनारस के मिथक टूटने लगे हैं और उसकी उसकी जादुई आभा बिखरने लगी है....

अनिल पांडेय

Monday, September 3, 2007

कौन बड़ा लूटेरा- नेता या डाकू

दूर क्षितिज से वह धरती पूरी लाल दिखाई दे रही थी...ऐसा लग रह था मानों वह खून से सनी हुई हो, सूरज की रोशनी के साथ इस धरती का रंग और भी गहरा होता जा रहा था. सूर्ख लाल...सड़क के दोनों तरफ दूर तलक फैले वह लाल फूल हमारे मन में कई तरह के ख्याल पैदा कर रहे थे. कौतूहल बस हमने अपनी गाड़ी रोक कर एक ग्रामीण से उन लाल फूलों का नाम जाना चाहा, “यह लडैन के फूल हैं साहब, ये जंगली फूल बरसात में अपने आप उग आते हैं.” तभी हमारे पास से एक तेज मोटरसाईकिल गुजरती है और उसपर सवार व्यक्ति के कंधों पर झूल रही बंदूक हमें बता देती है कि हम "बंदूकों की धरती" पर हैं. लडैन के फूल.. लडैन का अर्थ होता है बहादुर या लड़ाका. अचानक जेहन में बचपन में दादी से सुनी चंबल के डाकुओं की कहानी घूमने लगती हैं. डाकू मान सिंह, पुतलीबाई, डाकू सुल्ताना, मलखान सिंह... मां भवानी के पुजारी... गरीबों के मसीहा.. दादी बताती थीं अमीरों को लूटना और गरीबों की मदद करना चंबल के डाकू अपना फर्ज समझते थे. वे डाकू नहीं बागी थे.. बागी.. जुल्म के खिलाफ बगावत. यह सब सोचते हुए हम ग्वालियर से शिवपुरी होते हुए पूर्व दस्यु सरगना और कभी चंबल में आतंक के पर्याय रहे मलखान से मिलने गुना जा रहे थे. और जब मलखान से मिल कर लौटे तो उनकी कही यह बात, “चंबल से ज्यादा खतरनाक डाकू तो संसद और विधानसभा में हैं.” हमारे कानों में देर तक गूंजती रही. चंबल के बीहड के गांवों में हमने देखा कि ज्यादातर लोग यही सोचते हैं. जब हम उनसे डाकुओं के बारे में बाते करते तो चर्चा घूम फिर कर नेताओं पर ही आ जाती और सब यही कहते, "नेता ही असली डकैत हैं, वे देश को लूट रहे हैं."
मेरे सामने एक अजीब सा यक्ष प्रश्न था.. चंबल के बीहड़ों में जाकर मैं यह सोचने को मजबूर हो गया कि आखिर देश के लिए नेता ज्यादा खतरनाक हैं या फिर डाकू ??????
चबंल के लोगों के अपने अपने तर्क हैं. भिंड के एक युवक कहते हैं, "डाकुओं की वजह से ही चंबल का पर्यावरण बचा हुआ है." वे बताते हैं कि चंबल का रेत बहुत ही उम्दा किस्म का होता है. घडियालों के संरक्षित क्षेत्र होने की वजह से इसके रेत के खनन पर पाबंदी है. लेकिन नेता और पुलिस की मदद से यहां धडल्ले से रेत खनन की तस्करी हो रही थी. लेकिन इलाके के लोगों की गुजारिश पर जगजीवन परिहार ने इसे बंद करवा दिया था. जो अवैध काम पुलिस नहीं रुकवा पाई उसे एक डाकू ने रुकवा दिया.
सत्तर के दशक में चंबल के बीहड़ों में मलखान सिंह का जबरदस्त आतंक था. गांव के मंदिर की जमीन पर सरपंच के कब्जे का विरोध मलखान को बीहडों में खीच ले गया. तब के एक मंत्री का रिश्तेदार इस सरपंच ने अपने रुतबे की वजह से मलखान को झूठे मामले में फंसा कर जेल भिजवा दिया और उनके एक साथी की हत्या करवा दी. जेल से जमानत पर रिहा होने के बाद अन्याय के खिलाफ मलखान ने बंदूक उठा ली. जमीनदार से डाकू बनने वाले मानसिंह से लेकर फूलन देवी तक सभी लोगों ने अन्याय के खिलाफ ही बंदूक उठाई. डकैत होते हुए भी इनके अपने सिद्धांत हुआ करते थे... जरूरतमंदों की मदद करना और बहन-बेटियों की शादी कराना डाकू अपना फर्ज समझते थे. डाकू होते हुए भी मानसिंह अपने नेक कामों की वजह से लोकप्रिय थे. यह सुन कर आप को थोड़ा अजीब लगेगा कि इस डाकू का आगरा स्थित इसके गांव में मंदिर बना हुआ है. साल में एक बार यहां धार्मिक उत्सव भी होता है.
तीसरी पीढी के डाकुओं (ददुआ और जगजीवन परिहार वगैरह) को छोड़ दें तो पहली और दूसरी पीढ़ी के डाकू अपने चरित्र की वजह से जाने जाते थे. मानसिंह गिरोह के सरदार रह चुके लोकमन दीक्षित उर्फ लुक्का डाकू की इस बात पर शायद तथाकथित पढ़ लिखे लोग यकीन नहीं करेंगे कि डकैतों के भी अपने आदर्श और सिद्धांत हुआ करते थे. डकैती के वक्त डाकू घर की किसी महिला को स्पर्श नहीं करते थे. लुक्का बताते हैं, "हम लोग डकैती के दौरान किसी बहन व बेटी के गहने नहीं लूटते थे और न ही विवाहित महिला के मंगलसूत्र को हाथ लगाते थे." शराब और शबाब से दूर रहने वाले डाकू कभी बलात्कार नहीं करते थे. लुक्का की बात सुनकर अखबार की वह सुर्खियां याद आ जाती है जिसमें हमारे जनप्रतिनिधियों और नेताओं के काले कारनामें छपे होते हैं. ददुआ, दयाराम गडेरिया और जगजीवन परिहार की भी अपने इलाके व जातियों में राबिनउड की छवि थी. यहां मेरी डाकुओं की महिमागान की मंशा नहीं हैं, मैं तो यह बताना चाहता हूं कि आखिर क्यों चंबल के लोग नेताओं को देश के लिए डाकुओ से ज्यादा खतरनाक बता रहे हैं. संसद और राज्य की विधानसभाओं में सैकड़ों जनप्रतिनिधि ऐसे हैं जो आपराधिक रिकार्ड वाले हैं. उन पर हत्या और लूट जैसे जघन्य अपराध का आरोप है. चंबल के बीहड़ों में जा कर ही समझ में आया कि आखिरकार यहां नेता से ज्यादा डाकू क्यों लोकप्रिय हैं. ददुआ अगर 30 साल तक बुंदेलखंड के जंगलों में राज करता रहा तो अपनी लोकप्रियता की वजह से. इलाके के लोग बताते हैं कि ददुआ के पास से कोई कभी निराश नहीं लौटता था. वह अपनी जाति के लोगों की भरपूर मदद करता था. आलम यह था कि हमारे जनप्रतिनिधि चुनाव जीतने के लिए उसकी "लोकप्रियता" और "आतंक" का सहारा लेते थे.
बीहड़ों में एक सप्ताह गुजारने के बाद लौटते वक्त जेहन में बार बार वह यक्ष प्रश्न घूम रहा था.. असली डाकू कौन है.. एक पुलिस अधिकारी की बातों ने इसका जवाब ढूढने में मदद की. अधिकारी की माने तो चंबल की दस्यु समस्या की जड में यहां के जनप्रतिनिधि ही हैं. वे ही डकैत पैदा करते हैं. दरअसल डकैत उनके लिए कमाई का जरिया हैं. अपहरण उद्योग का एक मोटा हिस्सा नेताओं के पास पहुंचता है. डाकू नेता के लिए वोट का जुगाड़ करते हैं और बदले में नेता जी उन्हें पुलिस से संरक्षण दिलाते हैं. लंबी जद्दोजहद के बाद आखिरकार मुझे अपने यक्ष प्रश्न का जवाब मिल गया था.

अनिल पांडेय
प्रमुख संवाददाता
द संडे इडियन

Wednesday, June 13, 2007

बनारसी पन से मुक्त होना चाहती है नई पीढ़ी

कभी फुटपाथ किनारे चाय की दुकानों पर अड्डेबाजी करने वाले राहुल और उसके साथियों की शामें अब बनारस के सिगरा स्थित आईपी माल में गुजरती हैं. मैकडोनाल्ड के रेस्तरां में कोक और बर्गर के साथ दोस्तों के साथ गपशप..फिल्म देखना और कभी कभी बीयर के दो पैक मार लेना उनकी दिनचर्या में शुमार है. किसी एमएनसी में बढ़ियां सी नौकरी करना और विदेश में बसना उनका ख्वाब है. बीटेक कर रहे राहुल को बनारस अब बहुत बोर शहर लगने लगा है. उन्हें मलाल है कि वह दिल्ली क्यों नहीं गए पढ़ने. जींस और टी शर्ट पहने राहुल को गमछे से शख्त नफरत है. गमछा किसी बनारसी के लिए "आइ़डेंटी कार्ड" की तरह है. जबकि राहुल और उसके दोस्तों को यह गमछा "गंवारपन" का सर्टीफिकेट लगता है. और गंगा तो आम बनारसियों को मैली होने के बाद भी पवित्र लगती हैं जबकि इनके लिए गंगा एक प्रदूषित नदी भर है. राहुल कहते हैं, "बनारस में ऐसा क्या है जो यहां रहा जाए.. पान खा कर गाली देने के अलावा यहां के लोगों को कुछ काम ही नहीं है."
यह बनारस के बदलाव की एक झलक भर है. यह उस शहर की नई पीढ़ी है जिस शहर के बिस्मिल्ला खान और डा. वीरभद्र मिश्र ने लाख मौका मिलने के बाद भी इसे कभी नहीं छोड़ा. यह दोनों तो बानगी भर हैं. बनारस में ऐसे सैकड़ों लोग मिल जाएंगे जिन्हें विदेश में नौकरी और बसने का मौका मिला लेकिन वे इस शहर को छोड़ कर नहीं गए. इनके बनारस न छोडने की बस एक ही वजह थी- यहां की मस्ती और गंगा. विश्व प्रसिद्ध शहनाई वादक विस्मिल्ला खान से जब विदेश में न बसने की वजह पूछी गई तो उनका जबाव था, "वहां गंगा कहां मिलती..." तुलसी घाट पर बैठे प्रसिद्ध पर्यावरणविद व आईआईटी, बनारस में प्रोफेसर रहे डा. वीर भद्र मिश्र कहते हैं, "बनारस छोड़कर कभी कहीं जाने की इच्छा ही नहीं हुई. जब भी कभी व्याख्यान देने विदेश जाता हूं तो अपने साथ गंगा जल ले कर जाता हूं. बिना गंगा के सब सूना लगता है" डा. वीर भद्र मिश्र यहां के प्रसिद्ध संकटमोचन मंदिर के महंत भी हैं. दरअसल यह गंगा की नहीं गंगा के तट पर बसे बनारस की मस्ती है, यहां का फक्कड़पन है जो उन्हें यहां रोक कर रखती है. बाबा महादेव की नगरी में एक जुमला बहुत मशहूर है—"जो मजा बनारस में, न पेरिस में न फारस में." और इस मजे के लिए लोग अपना सुख और ऐशो आराम छोड़ कर बनारस में ही जमे रहते हैं. बनारस के बारे में कहा भी जाता है, "चना, चबैना गंग जल, जो पुरवे करतार. काशी कबहू न छोड़िए, विश्वनाथ दरबार." सही कहें तो यह वाक्य बनारस के पूरे जीवन दर्शन का निचोड़ है. यहां के लोगों को न धन चाहिए, न दौलत, बस चना और चबैना के साथ गंगा जल मिलता रहे तो वे कभी काशी नहीं छोड़ना चाहेंगे. लेकिन अब इस दर्शन को जीने वाले लोगों की तादाद में धीरे धीरे कमी आ रही है. नई पीढ़ी तो बनारस की आध्यात्मिक शांति और मस्ती से दूर होती जा रही है. वह बनारसीपन से मुक्त होना चाहती है. वरिष्ठ साहित्यकार और बनारस की मस्ती को जीने वाले प्रो. गया सिंह कहते हैं, "काशी अपनी परंपरागत चाल से चल रहा था कि भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने यहां के जनजीवन की शांति में खलल डाल दिया है. उपभोक्तावाद ने यहां की नई और पुरानी पीढ़ी के बीच दूरी बढ़ा दी है. पश्चिम की तथाकथित नई संस्कृति युवाओं को धीरे धीरे अपनी गिरफ्त मे ले रही है. लिहाजा वे बनारस की संस्कृति और परंपरा से कटते जा रहे हैं."
बनारस एक ऐसा शहर है जहां जन-जीवन की शुरआत अल भोर से होती है और रात 12 बजे तक चहल पहल बरकरार रहती है. सुबहे बनारस की ख्याति तो दूर दूर तक है. गंगा के मैली होने से यहां के लोगों में उसकी श्रद्दा कम नहीं हुई है लेकिन "सुबहे बनारस" की छटा इससे जरूर प्रभावित हुई है. दुनियाभर के लोग जिस शांति की तलाश में यहां आते हैं तो बनारस के घाट ही उन्हें वह शांति प्रदान करते हैं. लेकिन अब घाट घाट न रह कर पर्यटन स्थल बनते जा रहे हैं. घाटों के किनारे के घर होटल और मोटल में तब्दील हो गए हैं. घाटों पर पूजा करने वाले पंडिज जी लोग अब पूजा पाठ छोड़कर होटल का व्यवसाय कर रहे हैं. अशोक पांडेय कहते हैं, "बनारस के घाट अब घाट नहीं रह गए जुहू चौपाटी बन गए हैं. पंडों ने अपने घरों को पेइंग गेस्ट हाउस में तब्दील कर दिया है. जजमानों को आशीर्वाद देने वाले हाथ अब अंग्रेजों के कपड़े धुल रहे हैं और उनके लिए खाना बना रहे हैं." बाजार ने काशी के रक्षक पंडितों को धोबी और बाबर्जी बना दिया है.
प्रो. गया सिंह की माने तों काशी पर बाजार के साथ साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अन्य जिलो और बिहार के लोगों का भी आक्रमण हुआ है. जिससे यहां की संस्कृति खतरे में पड़ गई है. लोग पढ़ाई और रोजगार की तलाश में यहां आए और यहीं के हो कर रह गए. प्रो. गया सिंह कहते हैं, "इससे न केवल शहर पर जनसंख्या का बोझ बढ़ा बल्कि इससे काशी की मस्ती में भी खलल पड़ा, क्योंक जो लोग बाहर से आए वह काशी की संस्कृति और परंपरा से अनजान थे." बाहरी लोगों के बसने की वजह से यहां की भाषा भी प्रभावित हुई. गालियों से लबरेज काशी की बोली में गजब की मस्ती और फक्कड़पन है. प्रसिद्ध साहित्यकार और चर्चित उपान्यास के लेखक प्रो. काशी नाथ सिंह कहते हैं, "यहां की बोली और गाली में एक मधुर रिश्ता है. ये गालियां आत्मीयता की सूचक होती हैं. अगर यहां कोई अपने किसी मित्र से बिना गालियों के संबोधन से बात करें, तो दूसरा मित्र पूछ बैठेगा कि सब ठीक ठाक तो है." लेकिन जिन गालियों को पुरानी पीढ़ी के लोग प्यार की भाषा मानते थे, नई पीढ़ी उन्हें अश्लील और फूहड मानती है.
बनारस बदल रहा है और लोगों के जीवन से बनारसीपन दूर होता जा रहा है. सुस्त चाल में चलने वाला यह शहर अब बाजार की दौड़ में शामिल हो गया है. लिहाजा यह शहर अब हड़बड़ी में रहने लगा है. लोगों के पास अब घाट पर घूमने और बहरी अलंग के लिए समय ही नहीं है. बहरी अलंग के तहत लोग शाम को घाटों पर इकठ्ठा होते और नाव में सिल बट्टे पर भांग घोटते गंगा के उस पार जाते और फिर मस्ती का घूंट पी कर दिन छिपने के बाद घर वापस लौटते. बाजार ने उनके रहने सहन को भी प्रभावित किया है. अशोक पांडेय कहते हैं, "जब पश्चिम के लोग हमारी संस्कृति की तरफ आकर्षित हो रहे हैं तो हम उनकी नकल पर उतारू हैं. वे हमारी धोती पहन रहे हैं जबिक हमारे युवा उनकी जींस की तरफ आकर्षित हो रहे हैं."
राजनीति ने भी बनारस को तोड़ा है. काशी का अस्सी कस्बा अपनी बौद्धिक बहसों और बुद्दिजीवियों के अड़्डे के रूप में जाना जाता है. देश के नामीगिरामी बुद्दिजीवियों, लेखकों, साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों का यहां अवागमन रहता है. यहां की पप्पू व केदार की चाय की दुकान में आप को बनारस के तमाम बुद्दिजीवी मिल जाएंगे. प्रसिद्ध साहित्यकार धूमिल और नामवर सिंह का अस्सी अड़्डा रहा है. मधु दंडवते, राम मनोहर लोहिया, मधु लिमए और राज नारायण भी यहां आया करते थे. बहस मुहाबसों का अस्सी में ऐसा दौर हुआ करता था कि यहां की सड़के "संसद" के नाम से "कुख्यात" थीं. लेकिन राजनीति ने बुद्धिजीवियों को भी आपस में बांट दिया है और अब विचारधारा के आधार पर उनकी अलग अलग चाय की दुकाने हैं. प्रो. काशी नाथ सिंह कहते हैं, "अब यहां असहमित की गुंजाइश खत्म हो गई है. पहले लोगों के बीच संवाद हुआ करता था, लेकिन अब संवादहीनता की स्थिति बन गई है. लिहाजा अस्सी पर आने वाले लोग तितर बितर हो गए हैं."
सनातनी परंपरा वाले इस शहर में एक मॉल खुल गया है. काशी के रक्षक इसे बाजार का पहला हमला मान रहे हैं. लेकिन जल्दी ही यहां कई और माल खुलने वाले हैं. हालांकि बनारस अभी बाजार का उतना शिकार नहीं हुआ है जितना दूसरे शहर. हालांकि बाजार की चमक दमक से देश दुनिया के सभी शहर प्रभावित हो रहे हैं. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि वह शहर जहां पश्चिम के लोग उपभोक्तावाद और बाजार की चकाचौंध से भाग कर शांति की तलाश में आया करते है, वह शहर अब बाजार की चकाचौंध की तरफ आकर्षित हो रहा है. बनारस के बुद्धिजीवी चिंतित हैं कहीं बाजार की आंधी में इस शहर की परंपरा व संस्कृति तहस नहस न हो जाए. संस्कृति व परंपराएं इतनी आसानी से तहस नहीं होती और वह भी बनारस की, जिसकी जड़े बहुत गहरी हैं. लेकिन एक बात तो साफ है नई पीढ़ी बनारसीपन से मुक्त होने के लिए छटपटा रही है.

Tuesday, June 12, 2007

मौत का पुजारी

बनारस की वह शाम कुछ खास थी...उस सुहानी शाम में सूरज धीरे धीरे गंगा में उतर रहा था. ऐसा लग रह था मानो वह भी गंगा में डुबकी लगाना चाहता है. हम बनारस के घाटों पर टहल रहे थे.. हमारी निगाहें किसी को ढूढ रही थीं. अंधेरे के साथ साथ हम अस्सी घाट से राजघाट की तरफ बढ़ रहे थे. शहर की रोशनी गंगा में तैर रही थी..थोड़ा आगे बढ़ने पर हमने गंगा के किनारे टिमटिमाते दीए दिखे..और सहसा कानों में श्लोक गूंजने लगते हैं. यह दशाशुमेर घाट पर हो रही गंगा की आरती का दृश्य था. जीवन के संघर्ष और आध्यात्म का अदभुत मेल. एक अलौकिक दृश्य..एक दिव्य अनुभूति.
यहां घाटों पर आने वाला हर आदमी अपने आप में एक दर्शन है. उनके पास जीवन के हर गूढ़ रहस्यों के सरल जवाब हैं. हम उनसे मिलते हुए, बतियाते हुए ऐसी जगह पर पहुंचते हैं जहां जीवन की उस सच्चाई से हमारा साक्षात्कार होता है, जिसे मृत्यु कहते हैं.. हमारे चारो तरफ चिताएं थी.धूं धूं करती जलती लाशें..जीवन का अंतिम सत्य... अंधेरे और रोशनी का मेल. हम हरिशचंद्र घाट पर थे... अगर आप को सत्यवादी राजा हरिशचंद्र की कहानी याद होगी तो यह वही श्मशान घाट है जहां हरिशचंद्र को अंतिम संस्कार के लिए लाया गया था और डोम ने बिना कर लिए उनके अंतिम संस्कार से इनकार कर दिया था.
यहां आकर हमारी लताश पूरी होती है. हरिशचंद्र घाट पर हमारी मुलाकात हिदूं धर्म के उस सबसे अजूबे प्राणी से होती है जिसे अघोरी कहा जाता है. अनिल राम.. गंजे सिर और कफन के काले वस्त्रों में लिपटे इस अघोरी बाबा के गले में धातु की बनी नरमुंड की माला लटकी हुई थी. इसके अलावा हमें जिसने सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह थी उस अघोरी की आंखे.. लाल सुर्ख आंखों में मानों प्रचंड क्रोध समाया हुआ हो. आंखों में जितना क्रोध दिखाई दे रहा था बातों में उतनी शीतलता थी. आग और पानी का दुर्लभ मेल.. ऐसी आंखें हमने कभी नहीं देखी थी. अघोरी लोग गाय का मांस छोड़ कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं. मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक. अनिल राम से बात करते हुए हम थोड़ा नर्बस हो जाते हैं. लेकिन फिर भी हमने अनिल राम के साथ घंटों श्मशान पर बैठ कर उनसे ढेरों ऐसे सवाल किए जिनका उत्तर हर कोई जानना चाहता है. अनिल राम ने भी बड़े ही शांत भाव से उन सारे सवालों के जबाव हमें दिए. हां, बीच-बीच में उनका मौन साध लेना हमें डराता जरूर था.

अघोर पंथ के बारे में अनिल राम हमें बताते हैं कि अघोर का अर्थ होता है सरल. और सरल बनना बड़ा ही कठिन है. सरल बनने के लिए ही अघोरी को कठिन साधना करनी पड़ती है. आप तभी सरल बन सकते हैं जब आप अपने से घृणा को निकाल दें. इसलिए अघोर बनने की पहली शर्त यह है कि इसे अपने मन से घृणा को निकला देना होगा. अघोरी इसीलिए लाशों से सहवास करता है और सबसे घृणित जगह श्मशान में रहते हुए मानव के मांस का सेवन भी करता है. ऐसा करने के पीछे यही तर्क है कि व्यक्ति के मन से घृणा निकल जाए. जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है. लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफन से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है. हमने अनिल राम से जब यह जानना चाहा कि क्या उन्होंने भी यह सब किया है तो वह थोड़ी देर के लिए जड़ हो जाते हैं, फिर मौन तोड़ते हुए कहते हैं, “जो चीजें श्मशान में की जाती हैं, उसे वहीं छोड़ देनी चाहिए.” वह आगे जोड़ते हैं, “असली अघोरी कभी इस साधना को टीवी कैमरे के सामने नहीं करेगा.”
अनिल का बचपन बनारस से सटे जौनपुर जिले के एक गांव में बीता. उच्च अध्ययन के लिए वे काशी आए और फिर यहीं के होके रह गए. काशी विद्यापीठ से उन्होंने दर्शनशास्त्र में एमए किया और फिर सत्य और ईश्वर की खोज में हरिशचंद घाट स्थित श्मशान में आ गए. 12 साल से यही उनका घर है और साधना स्थली भी. वह बताते हैं, “जब वह 12 साल पहले यहां आए थे तो यहां ढेर सारे अघोरी थे.” अनिल राम कभी किसी से कुछ मांगते नहीं है. जो मिल गया वह खा लिया, नहीं मिला तो कई रातें भूखे काट दी. वह वह तल्खी से कहते हैं, “अघोर पंथ उतना ही पुराना है जितना कि हिंदू संप्रदाय. लेकिन अघोरी कभी दूसरे धर्म गुरुओं की तरह मठ बना कर संगठित रूप से नहीं रहते. वे शाक्ति की देवी काली के उपासक होते हैं. और रही बात प्रचार प्रसार की तो अघोरी इससे कोशों दूर रहता है.”
बनारस में अघोरियों के प्रति बड़ा सम्मान दिखाई देता है. इनकी सिद्धियों और दैवीय शक्तियों के बारे में तमाम कहानियां सुनने को मिल जाती है. अघोर बाबा कीनाराम के लिए लोगों में गजब की श्रद्दा दिखाई देती है. कीना राम की समाधि पर काशी के बड़े बड़े विद्वानों के अलावा देशभर के लोग शीश नवाने आते हैं. संत कीनाराम की समाधि पर 450 साल से धुनी जलती आ रही है. बनारस के श्मशान घाट पर जो भी मुर्दे जलाए जाते हैं उनमें से हर एक की चिता से पांच लकड़ी निकाल कर यहां लाई जाती है, जो धुनी के काम आती है. बाबा कीना राम के बारे में मान्यता है कि भगवान शिव ने उन्हें कई सिद्धियां प्रदान कर रखी थीं.

अनिल राम भी बाबा कीना राम की शक्तियों के बार में हमें एक कहानी सुनाते हैं. एक बार बाबा कालू राम (एक और प्रसिद्ध अघोरी) गंगा के घाट पर एक मुर्दे की खोपड़ी को खाना खिला रहे थे. लेकिन अचानक मुर्दे की खोपड़ी ने खाना खाना बंद कर दिया. कालू राम को आभाष हो गया कि कोई और अघोरी भी पास में है. कीनाराम कालू राम के पास गए और पूछा कि वह क्या कर रहे हैं. लेकिन कालू राम के कोई जवाब न देने पर कीना राम ने उनसे कहा, “यह लाश नहीं, कोई जीवित आदमी है.” जवाब में कालू राम ने गुस्से में कीनाराम से कहा, “अगर यह लाश नहीं है तो तुम इसे अपने पास क्यों नहीं बुला लेते हों.” कीनाराम ने मुर्दे को राम खिलावन (अचानक उनके मुंह से यह नाम निकल गया) के नाम से पुकार लगाई और देखते ही देखते वह मुर्दा उठ कर खड़ा हो गया. राम खिलावन जीवन भर अनुयायी के रुप में कीना राम के साथ रहा.
कहानी समाप्त करने के बाद अनिल राम उठ खड़े होते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. अचानक उन्हें कुछ याद आता है और वापस लौट कर हमारे बगल में रखे गमछे में लिपटे अपने भोजन पात्र की मांग करते हैं. हम उन्हें उनका पात्र पकड़ाते हैं तभी गमछा हलका सा हट जाता है.. और यकबयक हमारे शरीर में सनसनाहट फैल जाती है.. वह भोजन पात्र तो मानव खोपड़ी थी...