अद्वैत गणनायक बने NGMA के महानिदेशक |
अद्वैत गणनायक एक अद्भूत कलाकार हैं. वो कला को जीते हैं. कला को मह्सूस करते हैं. फिर कलाकृतियों को रचते हैं. और उसमें भारत की गौरवगाथाओं को उकेरते हैं. मोदी सरकार ने ऐसे मौलिक कलाकार को नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट यानी राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय के महानिदेशक नियुक्त किये हैं. उन्हें भारत की कला ज्ञान पर फक्र हैं. वो भारत की कला ज्ञान परंपराओं को एक दिशा देना चाहते हैं और उसके ज़रिये दुनियाँ में भारतीय कला को एक वजूद.
लंदन विश्वविद्यालय के स्लैट स्कूल आफ फाइन आर्ट
से मूर्ति कला में उच्च अध्ययन करने वाले अद्वैत गणनायक यूरोप के कई देशों में
घूम-घूम कर स्कल्पचर बनाते रहे। लेकिन कलाकार मन उन्हें स्वदेश लौटा लाया। दिल्ली
आए तो गांधी जी की दुनिया की पत्थर की सबसे बड़ी मूर्ति बनाने में जुट गए। राजघाट
के गांधी संग्रहालय में यह मूर्ति स्थापित है। गांधी जी की दांडी मार्च की प्रतिमा
बनाने के तीन साल के दौरान अद्दैत ने गाँधी जी पर खूब अध्य़यन किये और वो गाँधी जी को
महसूस करने लगे थे. उस दौरान उन-उन जगहों पर गये जहाँ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के
दौरान गाँधी जी को अंग्रेजों ने जेल में रखा था. उनकी लंबाई, चौड़ाई, वजन,आँख, नाक आदि सारी चीजों का उन्होंने अध्ययन किया. और
फिर उनकी मूर्ती बनायी. एक 56 किलो वजन का आदमी देश को नेतृत्व देते थे उस पहलू को
उन्होंने अपने कला में दर्शाया.
एक साधारण किसान परिवार में जन्में अद्धैत
गणनायक अदभुत कलाकार हैं। उनकी कला में पश्चिम की नकल नहीं है। उनकी कला में
भारतीयता और अपनी मिट्टी की खुशबू है। मुंबई के महाबल पहाड़ पर गीता के प्रमुख 18
श्लोकों पर आधारित उनका स्कल्पचर उनकी कला की गहरी समझ और उंचाइयों को व्याख्यायित
करता है। अपनी पारंपरिक और समृद्द कला से उन्हें बेहद प्रेम और लगाव है। यही वजह
है कि वे लंदन और दिल्ली छोड़ कर अपने जन्मभूमि उड़ीसा चले जाते हैं। वे कला को
पैसा कमाने का जरिया भर नहीं मानते। वे कला को समाज की थाती मानते हैं। शायद इसी
सोच की वजह से नब्बे के दशक के आखिर में उन्होंने “स्वदेशी आंदोलन के समर्थन” में
अपनी कार की बलि दे दी थी। दिल्ली के शुरूआती दिनों में उनके पास एक पुरानी कंटेसा
कार थी। जिसे उनकी चलाया करती थीं। एक दिन उन्होंने इस पर स्वदेशी के समर्थन में
कुछ-कुछ पेंटिंग बना कर कार को “पोस्टर” बना दिया और लाकर साहित्य अकादमी के सामने
खड़ा कर दिया। वर्षों यह कार “स्वदेशी” के इस्तहार के रूप में यहीं खड़ी रही। ऐसे तेवर
वाले शालीन अद्दैत गणनायक अगर इस बार दिल्ली आए हैं तो महानिदेशक बनने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए आए हैं कि उन्हें
कला और कलाकारों के लिए कुछ करने का मौका मिल रहा है। वो कला कि मौलिकता पर जोर देते
हैं. वे जितना बेहतरीन स्कल्पचर बनाते हैं, उतनी ही अच्छी
पेंटिंग भी करते हैं। वे ब्रश की बजाए अंगुलियों से कैवनास पर चित्र उकेर देते
हैं। उनकी अंगुलिया जितनी छीनी हथौड़ी की अभ्यस्त हैं उनती ही रंगो की भी। दिल्ली
कालेज आफ आर्ट से मास्टर आफ फाइन आर्ट की पढ़ाई करने वाले अद्वैत को मूर्ति कला के
लिए 1993 में भारत सरकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। यूरोप के करीब
दर्जनभर देशों में अपनी मूर्ति कला का लोहा मनवाने वाला यह कलाकार बिल्कुल गंवई
है। करीब पांच-छह साल वे दिल्ली रहे। लेकिन दिल्ली में भी उनका मन नहीं लगा। उडिया
की मिट्टी से उनका गहरा लगाव उन्हें दिल्ली से भुवनेश्वर ले गया और एक दशक तक वह
वहीं कला साधना करते रहे। गांव के गरीब बच्चों को कला सिखाते रहे। वे KIIT विश्वविद्यालय के स्कूल आफ फाइन आर्ट के डायरेक्टर भी रहे। वे ऐसे विरले
प्रतिभावान भारतीय हैं जिन्हें कामनवेल्थ फेलोशिप पर लंदन के स्लैट स्कूल में
पढ़ने का मौका मिला। यह फेलोशिप केवल एक भारतीय को मिला करती थी। दुनिया की इस
प्रतिष्ठित फेलोशिप की खाशियत यह है कि इसमें पढाई के साथ-साथ परिवार के रहने-खाने
आदि का भी खर्च मिलता है। यहां से पढ़ाई के बाद अद्धैत को अच्छा करियर बनाने के
तमाम मौके मिले। लेकिन वे कभी पैसे के पीछे नहीं भागे। कला साधना में जुटे रहे। इतने
बड़े कलाकार होने का कोई रोब-दाब और ग्लैमर नहीं। मंडी हाउस पर वे आज भी अपने देशी
स्टाइल में चाय पीते हुए मिल जाएंगे। पैंट, कुर्ता, चप्पल, लंबी दाढ़ी और कंधे पर झोला देखर कोई भी दूर
से उन्हें पहचान सकता है।