बनारस की वह शाम कुछ खास थी...उस सुहानी शाम में सूरज धीरे धीरे गंगा में उतर रहा था. ऐसा लग रह था मानो वह भी गंगा में डुबकी लगाना चाहता है. हम बनारस के घाटों पर टहल रहे थे.. हमारी निगाहें किसी को ढूढ रही थीं. अंधेरे के साथ साथ हम अस्सी घाट से राजघाट की तरफ बढ़ रहे थे. शहर की रोशनी गंगा में तैर रही थी..थोड़ा आगे बढ़ने पर हमने गंगा के किनारे टिमटिमाते दीए दिखे..और सहसा कानों में श्लोक गूंजने लगते हैं. यह दशाशुमेर घाट पर हो रही गंगा की आरती का दृश्य था. जीवन के संघर्ष और आध्यात्म का अदभुत मेल. एक अलौकिक दृश्य..एक दिव्य अनुभूति.
यहां घाटों पर आने वाला हर आदमी अपने आप में एक दर्शन है. उनके पास जीवन के हर गूढ़ रहस्यों के सरल जवाब हैं. हम उनसे मिलते हुए, बतियाते हुए ऐसी जगह पर पहुंचते हैं जहां जीवन की उस सच्चाई से हमारा साक्षात्कार होता है, जिसे मृत्यु कहते हैं.. हमारे चारो तरफ चिताएं थी.धूं धूं करती जलती लाशें..जीवन का अंतिम सत्य... अंधेरे और रोशनी का मेल. हम हरिशचंद्र घाट पर थे... अगर आप को सत्यवादी राजा हरिशचंद्र की कहानी याद होगी तो यह वही श्मशान घाट है जहां हरिशचंद्र को अंतिम संस्कार के लिए लाया गया था और डोम ने बिना कर लिए उनके अंतिम संस्कार से इनकार कर दिया था.
यहां आकर हमारी लताश पूरी होती है. हरिशचंद्र घाट पर हमारी मुलाकात हिदूं धर्म के उस सबसे अजूबे प्राणी से होती है जिसे अघोरी कहा जाता है. अनिल राम.. गंजे सिर और कफन के काले वस्त्रों में लिपटे इस अघोरी बाबा के गले में धातु की बनी नरमुंड की माला लटकी हुई थी. इसके अलावा हमें जिसने सबसे ज्यादा आकर्षित किया वह थी उस अघोरी की आंखे.. लाल सुर्ख आंखों में मानों प्रचंड क्रोध समाया हुआ हो. आंखों में जितना क्रोध दिखाई दे रहा था बातों में उतनी शीतलता थी. आग और पानी का दुर्लभ मेल.. ऐसी आंखें हमने कभी नहीं देखी थी. अघोरी लोग गाय का मांस छोड़ कर बाकी सभी चीजों का भक्षण करते हैं. मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक. अनिल राम से बात करते हुए हम थोड़ा नर्बस हो जाते हैं. लेकिन फिर भी हमने अनिल राम के साथ घंटों श्मशान पर बैठ कर उनसे ढेरों ऐसे सवाल किए जिनका उत्तर हर कोई जानना चाहता है. अनिल राम ने भी बड़े ही शांत भाव से उन सारे सवालों के जबाव हमें दिए. हां, बीच-बीच में उनका मौन साध लेना हमें डराता जरूर था.
अघोर पंथ के बारे में अनिल राम हमें बताते हैं कि अघोर का अर्थ होता है सरल. और सरल बनना बड़ा ही कठिन है. सरल बनने के लिए ही अघोरी को कठिन साधना करनी पड़ती है. आप तभी सरल बन सकते हैं जब आप अपने से घृणा को निकाल दें. इसलिए अघोर बनने की पहली शर्त यह है कि इसे अपने मन से घृणा को निकला देना होगा. अघोरी इसीलिए लाशों से सहवास करता है और सबसे घृणित जगह श्मशान में रहते हुए मानव के मांस का सेवन भी करता है. ऐसा करने के पीछे यही तर्क है कि व्यक्ति के मन से घृणा निकल जाए. जिनसे समाज घृणा करता है अघोरी उन्हें अपनाता है. लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफन से घृणा करते हैं लेकिन अघोर इन्हें अपनाता है. हमने अनिल राम से जब यह जानना चाहा कि क्या उन्होंने भी यह सब किया है तो वह थोड़ी देर के लिए जड़ हो जाते हैं, फिर मौन तोड़ते हुए कहते हैं, “जो चीजें श्मशान में की जाती हैं, उसे वहीं छोड़ देनी चाहिए.” वह आगे जोड़ते हैं, “असली अघोरी कभी इस साधना को टीवी कैमरे के सामने नहीं करेगा.”
अनिल का बचपन बनारस से सटे जौनपुर जिले के एक गांव में बीता. उच्च अध्ययन के लिए वे काशी आए और फिर यहीं के होके रह गए. काशी विद्यापीठ से उन्होंने दर्शनशास्त्र में एमए किया और फिर सत्य और ईश्वर की खोज में हरिशचंद घाट स्थित श्मशान में आ गए. 12 साल से यही उनका घर है और साधना स्थली भी. वह बताते हैं, “जब वह 12 साल पहले यहां आए थे तो यहां ढेर सारे अघोरी थे.” अनिल राम कभी किसी से कुछ मांगते नहीं है. जो मिल गया वह खा लिया, नहीं मिला तो कई रातें भूखे काट दी. वह वह तल्खी से कहते हैं, “अघोर पंथ उतना ही पुराना है जितना कि हिंदू संप्रदाय. लेकिन अघोरी कभी दूसरे धर्म गुरुओं की तरह मठ बना कर संगठित रूप से नहीं रहते. वे शाक्ति की देवी काली के उपासक होते हैं. और रही बात प्रचार प्रसार की तो अघोरी इससे कोशों दूर रहता है.”
बनारस में अघोरियों के प्रति बड़ा सम्मान दिखाई देता है. इनकी सिद्धियों और दैवीय शक्तियों के बारे में तमाम कहानियां सुनने को मिल जाती है. अघोर बाबा कीनाराम के लिए लोगों में गजब की श्रद्दा दिखाई देती है. कीना राम की समाधि पर काशी के बड़े बड़े विद्वानों के अलावा देशभर के लोग शीश नवाने आते हैं. संत कीनाराम की समाधि पर 450 साल से धुनी जलती आ रही है. बनारस के श्मशान घाट पर जो भी मुर्दे जलाए जाते हैं उनमें से हर एक की चिता से पांच लकड़ी निकाल कर यहां लाई जाती है, जो धुनी के काम आती है. बाबा कीना राम के बारे में मान्यता है कि भगवान शिव ने उन्हें कई सिद्धियां प्रदान कर रखी थीं.
अनिल राम भी बाबा कीना राम की शक्तियों के बार में हमें एक कहानी सुनाते हैं. एक बार बाबा कालू राम (एक और प्रसिद्ध अघोरी) गंगा के घाट पर एक मुर्दे की खोपड़ी को खाना खिला रहे थे. लेकिन अचानक मुर्दे की खोपड़ी ने खाना खाना बंद कर दिया. कालू राम को आभाष हो गया कि कोई और अघोरी भी पास में है. कीनाराम कालू राम के पास गए और पूछा कि वह क्या कर रहे हैं. लेकिन कालू राम के कोई जवाब न देने पर कीना राम ने उनसे कहा, “यह लाश नहीं, कोई जीवित आदमी है.” जवाब में कालू राम ने गुस्से में कीनाराम से कहा, “अगर यह लाश नहीं है तो तुम इसे अपने पास क्यों नहीं बुला लेते हों.” कीनाराम ने मुर्दे को राम खिलावन (अचानक उनके मुंह से यह नाम निकल गया) के नाम से पुकार लगाई और देखते ही देखते वह मुर्दा उठ कर खड़ा हो गया. राम खिलावन जीवन भर अनुयायी के रुप में कीना राम के साथ रहा.
कहानी समाप्त करने के बाद अनिल राम उठ खड़े होते हैं और आगे बढ़ जाते हैं. अचानक उन्हें कुछ याद आता है और वापस लौट कर हमारे बगल में रखे गमछे में लिपटे अपने भोजन पात्र की मांग करते हैं. हम उन्हें उनका पात्र पकड़ाते हैं तभी गमछा हलका सा हट जाता है.. और यकबयक हमारे शरीर में सनसनाहट फैल जाती है.. वह भोजन पात्र तो मानव खोपड़ी थी...
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1 comment:
आपके इस आपबीती को पढ़ कर मन रोमांचित हो उठा। धन्यवाद। आपने सत्यवादी हरिश्चन्द्र की जिस कथा का दृष्टांत दिया है, उसकी कहानी थोड़ी-सी अलग है। दरअसल, आपने जिस कफन के मांगने की बात की है, वो किसी दूसरे डोम ने नहीं बल्कि डोम के रूप में स्वयं राजा हरिश्चन्द्र ने ही अपने बेटे रोहित के दाह-संस्कार से पहले अपनी पत्नि से कफन मांगा था। पूरी कहानी तो शायद आप जानते ही होंगे।
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