बनारस की पहचान एक आध्यात्मिक और चमात्कारिक नगरी के रूप में है. भौतिकता और चमक-दमक से दूर रहने वाला यह शहर अपनी मस्ती और बेफिक्री के लिए भी जाना जाता है. अनिल पांडेय बता रहे हैं कि मिथकीय संदर्भों वाले इस शहर की जादुई आभा अब बिखरने लगी है....
बनारस के दुर्गाकुंड स्थित चाय की दुकान पर हर रोज लोगों को ठहाके लगाते देखना राबर्ट को अजीब लगता था. उसकी उलझन और बढ़ गई, जब उसने देखा कि यह सिलसिला तो दिनभर जारी रहता है. पहले उसे लगा कि ये लोग किसी "लाफिंग क्लब" के सदस्य हैं. लेकिन उसकी हैरानी तब और बढ़ जाती है जब उसे पता चलता है कि ये लोग किसी "लाफिंग क्लब" के सदस्य नहीं, बल्कि बनारस के "सामान्य" लोग हैं. कोई वकील है तो कोई शिक्षक... कोई रिस्शा चलाता हैं को कोई फल बेचता है. आखिर एक दिन उसका धैर्य जवाब दे गया और उसने हिम्मत करके लोगों से उनकी हंसी का राज पूछ ही लिया. जवाब सुन कर अंग्रेज हैरत में पड़ गया. जिसे वह अबतक मिथक मानता था, वह एक हकीकत के रूप में उसके सामने था.
जवाब बड़ा ही सीधा था, लेकिन राबर्ट के लिए किसी पहेली से कम नहीं. लोगों ने राबर्ट को बताया कि वे लोग "वर्तमान" में जीते हैं, इसलिए उन्हें "भविष्य" की चिंता नहीं होती. यही उनकी खुशी और मस्ती का राज है. काशी के लोगों के लिए यह एक सामान्य सी बात है. भविष्य के प्रति चिंतित न होने से वह कुछ खोने और पाने के भय से मुक्त होता है. वह वर्तमान में जीता है और अतीत की जुगाली करता है. राबर्ट ने सुना था कि काशी के लोग मुफलिसी में भी बेफिक्री का जीवन जीते हैं. लेकिन वह इस पर कतई यकीन करने को तैयार नहीं था कि गरीबी और अभाव में भी भला कोई कैसे खुश रह सकता है? उसे यह सब कपोल कल्पना लगती थी, लेकिन बनारस आने के बाद उसका यह भ्रम दूर हो जाता है. उसे लोगों की मस्ती का, खुशी का राज पता चल गया था. उसे यह सब किसी जादू से कम नहीं लग रहा था.
बनारस की पहचान तो वैसे एक प्रचीन और आध्यात्मिक शहर की है, लेकिन यहां आने वाला हर कोई इसे अपने-अपने हिसाब से परिभाषित करता है. यही वजह है कि इस शहर के साथ तमाम तरह के मिथक जुड़े हुए हैं. कोई इसे दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं के "म्यूजिमय" के रूप में देखता है तो कोई "मोक्ष की नगरी" के रूप में. कुछ लोग इसे "सुकुन का शहर" मानते है तो कुछ "भगवान शंकर का घर". बहुत सारे लोग इसे "मस्ती" और "बेफिक्री" के दुर्लभ शहर के रूप में भी देखते हैं. लेकिन ज्यादातर लोग इसे एक चमत्कारिक नगरी ही मानते हैं, जहां "कुछ" न होते हुए भी "बहुत कुछ" है. एक अलौकिक शांति.. अविस्मर्णीय दिव्य अनुभूति... मन को सुकुन देने वाले गंगा के प्राचीन घाट, मंदिर की घंटियां.. काशी विश्वनाथ का मंदिर, मोक्षदायिनी गंगा.. और गंदी तंग गलियों व भीड़भाड वाले इस शहर में एक अजीब सी खामोशी.. ऐसी खामोशी जो लोगों को घंटो ध्यान के बाद हासिल होती है. बनारस को जीने वाले विद्वान और हरिशचंद्र महाविद्यालय के हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. गया सिंह कहते हैं, "ये सब बाते मिल कर बनारस को एक जादुई व्यक्तित्व प्रदान करते हैं. बनारस से कई तरह के मिथक भी जुड़े हुए हैं और यह शहर अपने मिथकीय संदर्भों पर पूरी तरह से खरा भी उतरता है." वे आगे कहते हैं, "बनारस एक ऐसा विरला शहर है जिसकी गलियों में भारत बसा है. यहां कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के लोग रहते हैं."
बनारस के कई रंग हैं और कई रुप भी. पुराणों, वेदों और लोक कथाओं में बनारस के इन रूपों और रंगों का दर्शन होता है. एक मान्यता यह है कि बनारस भगवान शंकर के त्रिशूल पर टिका हुआ है. इसीलिए यह दिव्य-आध्यात्मिक शहर है. "सुबहे बनारस" के रहस्य को भी लोग महादेव से जोड़ कर देखते हैं. बनारस के लोगों का कहना है कि सुबह सूर्य की किरणें बाबा विश्वनाथ के मंदिर से टकरा कर लोगों तक पहुंचती हैं, इसीलिए यहां के लोग ऊर्जावान व मस्त रहते हैं. पुराणों के मुताबिक काशी (बनारस का प्रचीन नाम) भगवान शंकर का निवास स्थान है. संस्कृति के विद्वान और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय के प्रोफेसर आरसी पंड़ा कहते हैं, "काशी के बारे में यह वैदिक मान्यता है कि यहां के कण-कण में भगवान शिव का वास है. और जो लोग काशी में प्राण त्यागते हैं उन्हें शंकर और पार्वती खुद स्वर्ग से लेने आते हैं." काशी में मरने से मोक्ष प्राप्ति होती है, इसी धारणा की वजह से ही मणिकणिका घाट (गंगा किनारे स्थित श्मशान घाट) पर कभी चिता की राख ठंडी नहीं होती. काशी तुलसी, कबीर और रैदास जैसे महान संतों की जन्मभूमि भी रही है. तो अघोर कीनाराम और तैलंगास्वामी को यहां लोग महादेव का अवतार मानते हैं. इनके बारे में जितने मुंह उतनी बाते सुनने को मिलती हैं. लेकिन काशी में कोई विरला ही होगा जो इन्हें इतिहास का मिथकीय पात्र बताएगा. लोग इनके चमत्कारों से प्रभावित मिलते हैं. कीनाराम और तैलंगास्वामी के चमत्कारों की किवदंतियां बनारस की गलियों में बिखरी पड़ी हैं. कीनाराम और तैलंगास्वामी का नाम लोग बड़ी ही श्रद्दा से लेते हैं. उनकी समाधि स्थल पर देश के कोने-कोने से लोग दर्शन करने आते हैं.
बनारस अपनी जिंदादिली और मस्ती के लिए ज्यादा जाना जाता है. यही वह वजह है जिसकी वजह से दुनिया भर के लोग यहां आते हैं. जो लोग बनारस के बारे में नहीं जानते, वे इसे एक मिथक ही मानते हैं. बनारस के बारे में कहा जाता है कि जो यहां कुछ दिन रह गया उसका मन फिर दुनिया में कहीं नहीं लगता. मशहूर शहनाई वादक स्वर्गीय बिसमिल्ला खान से लेकर आईआईटी बनारस में प्रोफेसर रह चुके जानेमाने प्रर्यावरणविद डा वीरभद्र मिश्र को विदेशों में बेहतर सुख-सुविधाओं के साथ बसने के तमाम मौके मिले, लेकिन उन्होंने यह कर कभी बनारस नहीं छोड़ा कि उन्हें वहां "गंगा" कहां मिलेगी. अब प्रो. आर सी पंडा को ही ले लीजिए. उड़ियाभाषी पांडा 1988 में पुरी से बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में लेक्चरर से रीडर बन कर इस उम्मीद से आए थे कि जल्दी ही वे अपने राज्य लौट जाएंगे. प्रो. पांडा कहते हैं, "लेकिन बनारस इतना भा गया कि अब इसे छोड़ने का दिल नहीं कहता. मुझे जेएनयू जैसे कई और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में नौकरी का मौका मिला, लेकिन मैने मना कर दिया, जबकि कैरियर के लिहाज से यह बेहतर विकल्प था."
प्रो. जे.एल शर्मा दिल्ली में रहते हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों को रसायन विज्ञान पढ़ाते हैं. आध्यात्म और विज्ञान में हमेशा टकराव रहा है, लेकिन बनारस में यह टकराव दिखाई नहीं देता. गंगा के घाटों की अलौकिक शांति और बनारस की मस्ती प्रो. शर्मा को हर साल काशी जाने के लिए मजबूर कर देती है. 25 साल से यह सिलसिला जारी है. वे इसे एक जादू की नगरी मानते हैं. वे कहते हैं, "इस शहर की आबो-हवा में कुछ जादू तो है जो आप को यहां आने और रुकने के लिए मजबूर कर देता है." वे कहते हैं, "बनारस को सिर्फ अनुभव किया जा सकता है. और मेरे लिए उन अनुभवों का शब्दों के जरिए व्याख्या करना मुश्किल है." प्रो. शर्मा बनारस की चाय की दुकानों से बहुत प्रभावित हैं. वे इसे शहर की नब्ज बताते हुए कहते हैं, "बनारस की चाय दुकानें महज दुकान नहीं हैं. वे सूचना केंद्र हैं और चलता फिरता पुस्तकालय भी. यहां मस्ती भी मिलती और दुनिया भर का ज्ञान भी. लोग यहां आप को चाय की चुस्कियां लेते हुए दिल्ली की राजनीति से लेकर ह्वाइट हाउस तक की बाते करते मिल जाएंगे." तो डाकूमेंट्री फिल्में बनाने वाले यतीश यादव के लिए बनारस स्वयं के साक्षात्कर के लिए एक बेहतरीन जगह है. फुर्सत मिलते ही वे बनारस भाग आते हैं और घंटों मणिकणिका घाट और हरिशचंद घाट पर बैठ कर जलती चिताओं को निहारते रहते हैं. यतीश कहते हैं, "इससे एहसास होता है कि यही जीवन का अंतिम सत्य है. यह एहसास ही जीवन में कुछ नेक कार्य करने के लिए प्रेरित करता है." बनारस अपनी गंगा जमुनी तहजीब के लिए भी जाना जाता है. गांगा का आनन्द यहां के हिंदू ही नहीं मुसलमान भी उठाते हैं. गंगा के घाटों पर विचरण करते तमाम मुसलमान मिल जाएंगे. मशहूर शायर नजीर बनारसी को गंगा के घाट बहुत प्रिय थे. वे कहा करते थे कि ईश्वर उन्हें कभी बनारस से दूर न करे. तो बिसमिल्ला खान भगवान शिव के अराधक थे और विश्वनाथ मंदिर भगवान शंकर के दर्शन करने जाया करते थे. यह दुर्लभ उदाहरण केवल बनारस में ही मिल सकता है.
बनारस के बारे में कहा जाता है वह हमेशा भौतिकता से दूर रहता है, कभी पैसे के पीछे नहीं भागता. दुनिया की चमक दमक और भीड-भाड़ जहां खत्म होती है बनारस वहां से शुरु होता है. यही वजह है कि भौतिकता से ऊबे दुनियाभर के तमाम लोग शांति की तलाश में यहां आते हैं. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. यहां की नई पीढ़ी भौतिकता और पश्चिमी चमक-दमक की ओर तेजी से आकर्षित हो रही है. प्रसिद्द साहित्यकार और बनारस के जनजीवन पर आधारित चर्चित उपन्यास 'काशी का आस्सी' के लेखक काशीनाथ सिंह कहते हैं, "नई पीढ़ी बनारसीपन से दूर हो रही है. वह यहां की मस्ती और इत्मीनान को निकम्मापन और आलस्य समझने लगी है. अपनी मस्त चाल से चलने वाला यह शहर अब पैसे और भौतिकता की होड़ में शामिल हो गया है." धीरे-धीरे बनारस बदलने लगा है. लोगों के जीवन से मस्ती और बेफिक्री गायब हो रही है. काशीनाथ सिंह की माने तो बाजारवाद की आंधी से बनारस के मिथक टूटने लगे हैं और उसकी उसकी जादुई आभा बिखरने लगी है....
अनिल पांडेय
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